योग के द्वारा कैसे स्वस्थ और ( सेवा साधना सत्संग ) करके हम अपना और लोगों का तनाव कम कर सकते हैं ।कैसे “ओम” का उच्चारण ” सुदर्शन क्रिया” के द्वारा अपने (“मन” “मस्तिक” और “सांसों” पर कंट्रोल ) और शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं और खुद को और अपने आसपास के लोगों को खुश रख सकते है। इस सब के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं अगर हम सब चाहते हैं खुद को और अपने आसपास के लोगों को तनाव मुक्त करना तो बस अपने दोस्तों के साथ या एक समूह में ,अपने घर में या किसी भी स्थान पर कर सकते हैं ।
योग स्वास्थ्य की एकात्मक पद्धति है जिसमें शारीरिक, मानसिक चेतना एवं आत्मा का विज्ञान निहित है। दैनिक जीवन में योग का अर्थ है ”व्यक्ति के दैनिक जीवन में योगाभ्यास।” इसका तात्पर्य है कि अपने समाज के पर्यावरण तथा समस्त जीवों के प्रति सकारात्मक योगदान करते हुए दैनिक जीवन में योग की अवधारणाओं की शिक्षाओं को दैनिक जीवन में धारण करना। दैनिक जीवन पद्धति में योग व्यक्ति को उसके सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्त्वों का निर्वाह करते हुए स्वमुक्ति के प्रयास में पूर्ण मार्गदर्शन प्रदान करती है। इस पद्धति की रचना अभ्यासकर्ता की आयु एवं शारीरिक दशा के उपरान्त भी क्रमिक एवं निरन्तर विकास के योग्य बनाती है। दैनिक जीवन में योग के निरन्तर एवं समर्पित अभ्यास से निम्र लाभ अर्जित होते हैं: उन्नत स्वास्थ्य एवं क्षमता, शारीरिक एवं मानसिक एकता, एकाग्रता में अभिवृद्घि, आत्मविश्वास, मानसिक शांति, नशे की आदतों से मुक्ति तथा अन्त में आत्म साक्षात्कार ।
मनुष्य की इन कमजोरियों को दूर करने के लिए यदि वह आसनों का अभ्यास प्रतिदिन करे तो शरीर में स्थिरता आती है और प्राणायाम का प्रतिदिन अभ्यास कर मन की चंचलता समाप्त होती है। इससे मन शांत, स्थिर व एकाग्र होता है।
जब शरीर और मन शांत व स्थिर होते हैं तो अपने आप ही आत्मविश्वास बढ़ता है तथा विपरीत परिस्थितियों को समझने में सहायता मिलती है। आसन, प्राणायाम के अभ्यास से दृष्टिकोण में बदलाव आकर सकारात्मकता बढ़ती है, जिससे मनुष्य अपने उद्देश्य में सफलता की ओर अग्रसर होता है।
इसे ‘योगःश्चित वृत्ति निरोधः’ के रूप में परिभाषित किया है। अर्थात मन का, चित्त का, वृत्तियों का अर्थात चंचलता का निरोध करना अर्थात उसे नियंत्रित करना ही योग है।इसी प्रकार धारणा और ध्यान, धारणा मतलब किसी विषय या वस्तु पर मन को एकाग्र करना। ध्यान मतलब मन का इतना एकाग्र हो जाना कि साधक का बाहरी जगत से संपर्क टूट जाए व वह अंतर्मुखी/आत्मलीन हो जाए। यह अवस्था ध्यान से प्राप्त होती है।
इस प्रकार योग को ‘योगः कर्मसुकौशलम्’ इस रूप में भी परिभाषित किया गया है, जिसका अर्थ है हम जो भी कार्य कर रहे हैं उसे पूरी तन्मयता, एकाग्रता व कुशलता के साथ करें।ध्यान हमारे मन की वह अवस्था है जो कि जन्म से मृत्यु तक हमारे साथ होती है, किंतु समय के साथ आने वाली विपरीत परिस्थितियों के कारण बिखरती जाती है और जब ज्यादा बिखेरने लगती है, तो हमें उसे समेटने की आवश्यकता होती है और हम ध्यान करने लग जाते हैं। इन सारी बातों से स्पष्ट है कि योग किसी धर्म से संबंधित नहीं है, बल्कि योग स्वयं ही एक धर्म है, क्योंकि मनुष्य को जीवन में कर्म करना व कर्म किस प्रकार करना चाहिए, यह योग सिखाता है। इस प्रकार योग श्रेयस (वास्तव में जो होना या करना चाहिए) तथा प्रेयस (जो हम अपने मन के कहने पर करना चाहते हैं) का भेद हमें समझाता है। योग में जहां तक ॐ के उच्चारण का प्रश्न है, तो यह शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है अ, ऊ, म। जिनका अध्ययन किए बगैर तो हम कभी अपने शैक्षणिक जीवन की पायदान भी नहीं चढ़ पाते। जहां तक अध्यात्म का प्रश्न है तो अ, ऊ, म तीनों का स्वर हमारे शरीर में स्थित अलग-अलग चक्रों से उत्पन्न होता है और जिसकी तरंगें जब उत्पन्न होती हैं, तो हमारे ही शरीर के आंतरिक अंगों की मालिश करती है और उन्हें मालिश के द्वारा स्वस्थ बनाती है।इस प्रकार योग एक आचरण पद्धति है, जिसके द्वारा मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक व आध्यात्मिक विकास होता है। योग हमारे अस्तित्व से जुड़ा मार्ग है और हर मनुष्य का कर्तव्य और अधिकार भी।
