*सद्गुरु के लक्षण* *जयगुरुदेव 🙏*
तुम सबको सेवा कार्य करना चाहिए । गरीबों की बस्तियों में जाकर भजन गाओ तथा कुछ अच्छा काम करो अर्थात् समाज सेवा का कार्य निरंतर करते रहो । यदि तुम्हारे गली-मोहल्ले में कूड़ा जमा है तो उसे साफ कर दो । जब तक तुम कोई समाज सेवा का कार्य नहीं करते, तब तक जीवन में प्रगति बहुत कठिन है ।
तुम खुद सोचो कि किस प्रकार की सेवा तुम कर सकते हो । सप्ताह में एक दिन ही पर्याप्त है । प्रतिदिन सेवा करने की आवश्यकता नहीं है । हर रोज़ अपनी सेवा करो, यही एक बड़ी सेवा होगी । अपने आप से पूछो - आज मैंने सेवा का कौन सा कार्य किया ?" "आज मैंने किसी को भी अपशब्द नहीं बोले । आज मैंने किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया ।" यही स्वयं में एक बड़ी सेवा है ।
सप्ताह में एक दिन सेवा करने का लक्ष्य बना लो । सेवा का फल बहुत महान है । इसका अर्थ यह नहीं कि तुम पारितोषिक प्राप्त करने के लिए सेवा करो । सेवा, अपने जीवन व जन्म के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए की जाती है । दिन में, तीन से चार घण्टे सेवा के लिए रखो, अपनी प्रात: साधना समाप्त करने के उपरांत, आश्रम में आ जाओ अथवा पास की बस्ती में जाओ अथवा वृद्धाश्रम जाओ और वहाँ लोगों से मिलो और बातें करो ।
तुम सभी मिल कर चार-पांच लोगों का सेवा-समूह बनाओ और सेवा करो । तुम देखोगे कि जैसे-जैसे तुम सेवा कार्य में निमग्न होगे, तुम्हारे जीवन में भी उत्थान होने लगेगा । यदि तुम मात्र अपने लिए धन अर्जित करके, खाकर, टी. वी. के सामने महीने भर बैठे रहोगे, तब ईश्वर तुम्हारे लिए कुछ क्यों करें ? जितने अधिक लोग तुम्हारे द्वारा लाभान्वित होते हैं, उतना ही तुम्हें प्रतिदान प्राप्त होता है । तब प्रत्येक इच्छित वस्तु तथा आवश्यकता की पूर्ति होने लगती है । इसलिए सेवा कार्यों में जुटने का संकल्प लो ।
शनिवार एवं रविवार को मात्र चार घण्टे ही करो । एक जुट होकर गाँवों में जाओ । गाँववासियों से शौच (स्वच्छता) के विषय में बात करो । उन्हें कुछ भेंट दो । प्राय: घर में पुराने वस्त्रों से नये स्टील के बर्तन ख़रीदे जाते हैं । पुराने वस्त्र एकत्रित करो, चाहो तो उन्हीं वस्त्रों से नये स्टील के बर्तन ख़रीदकर, किसानों को वितरित कर दो । जीवन-यापन के लिए ख़र्च में अत्यधिक वृद्धि हुई है, परंतु कृषक आज भी उसी प्रकार से परिश्रम करता है और बहुत मामूली जीवन व्यतीत करता है, उसे क्रय द्वारा हुई आमदनी का लाभांश भी अधिक प्राप्त नहीं हो रहा है । अत: गाँवों में जाओ और ग्रामीणों को कपड़े व बर्तन इत्यादि बाँटो ।
यदि समाज में हर व्यक्ति केवल अपने ही बारें में सोचता रहेगा, तो क्या वह सभ्य समाज कहलायेगा ? एक परिवार का ही उदाहरण ले कर देख लो । यदि परिवार के सभी सदस्य मात्र स्वयं के ही बारे में सोचते रहे, तो क्या वह घर बन पायेगा? इसी प्रकार सड़कों के किनारे घर बनाकर रहने वाले, घर का सारा कूड़ा सड़कों पर इकट्ठा करते रहें अथवा पड़ोसियों की परवाह किये बगैर घर के बगल में कचरा ड़ालने लगें, तब क्या ऐसी जगह रहने योग्य होगी? सड़कों के किनारे रहने वालों को सबके विषय में सोचना चाहिए । हम मध्य-रात्रि में ज़ोर से गाना नहीं गा सकते क्योंकि पड़ोसी उस समय सो रहे होंगे ।
प्रत्येक व्यक्ति, हर दूसरे व्यक्ति का ख्याल रखे, यह अच्छे समाज की पहचान है । यह एक सुसंस्कृत समाज है, एक दैवीय समाज है । ग्रामीणजनों व बस्तीवासियों को जाकर, स्वस्थ जीवन शैली के तरीके सिखाओ और उन्हें बताओ कि तुम्हें उनकी फिक्र है और प्रेम की यह अभिव्यक्ति तुम्हारा मार्ग प्रशस्त करेगी । भजन गाओ और अपनेपन का वातावरण निर्मित करो ।
आज मन में एक निर्णय करो, "इस सप्ताह मैं अपने नाम का समर्पण करता हूँ ।" अपने नाम की तिलांजली दे दो । परंतु हम करते क्या हैं ? हम अपने नाम को प्राय: कसकर पकड़े रहते हैं । एक बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति हैं जिनका नाम व मेरा नाम समान है पण्डित रवि शंकर । मेरे अनुयायी एक बार उनसे मिले और बताया कि हम लोग 'गुरुजी' से ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं । ऐसा लगा कि वे बहुत क्रोधित हो गये और बोले, "गुरुजी ने मेरा ही नाम पंण्डित रवि शंकर क्यों रख लिया है ? मैंने इस नाम को बनाने में ७० वर्ष संघर्ष किया है और मेरा नाम अब उनका नाम हो गया है । मैं जहाँ भी जाता हूँ उनका नाम देखता हूँ । उन्होंने मेरा नाम यूरोप, अमेरिका व सभी जगह इस्तेमाल किया है ।" वे इस बात से बेहद खिन्न थे । तब उस अनुयायी ने कहा, " गुरुजी को यह नाम बचपन में ही दिया गया था । उन्होंने यह नाम बड़े होने पर नहीं बदला है । अब इस विषय में क्या किया जा सकता है ? मैंने अपने भक्त से कहा कि अगर उन्हें खुशी मिलती है तो मैं अपना नाम बदल दूंगा ।
अतूल्य यश प्राप्त करने के उपरांत भी, वे खुश नहीं थे । हम तुच्छ बातों में फंस कर अपना जीवन दुखों से भर लेते हैं ।
अत: अपनी दृष्टि विशाल बनाओ । नाम व स्वरूप ही संसार है । आत्मा, नाम व रूप से परे है ।
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