प्रश्न : गुरुजी, जब आपके पास आते है तो मन में कई सवाल उठते है लेकिन यह दुविधा भी रहती है कि क्या पूछु ? इससे कैसे निपटें ?
श्री श्री रवि शंकरजी : देखिये, आप उस प्रश्न को इतने देर से मन में रखे हुए थे, कि ‘किसी तरह यह प्रश्न पूछ लूं’ (हँसते हुए) प्रश्न पूछना भी एक तरह की मजबूरी बन जाती है| जब तक आप उसे कह नहीं देते, आप विचलित रहते हैं| सही कहा न? तो जब गुरु के पास आते हैं, तो आप प्रश्न भी छोड़ के बैठिये| तब आपके मन में जो प्रश्न है, उसका उत्तर सहज ही आ जायेगा| आपके प्रश्न पूछने से पहले ही आपको उत्तर मिल जायेगा, हैं कि नहीं? यही उत्तम दर्जे का संवाद है| आपके मन में प्रश्न रहा, या फिर गायब ही हो गया| जो ज्ञान मिलना था मिल गया| और इसके आगे क्या कि ज्ञान की भी परवाह नहीं – खाली बैठें है, इसी में तृप्त| मन वैसे ही खुश हो गया| गोपियों में यही बात थी| जब विदुर गोपियों को ज्ञान देने गये तो वे बोलीं ‘क्या ज्ञान देते हो? खबर दो, द्वारका से आये हो, वहां सब ठीक है न? बस इतने में ही मैं खुश हूँ| हमको ज्ञान की ज़रूरत नहीं है’| पर यह एक कदम आगे है| अभी आप ये मत सोच लेना, कि हमें ज्ञान की कोई ज़रूरत नहीं है (हँसते हुए) एक दम पल्ला मत झाड लेना| यह नहीं बनेगा, ठीक है? ज्ञान का अपना स्थान है, वह भी ज़रूरी है| कर्म का अपना स्थान है, वह भी ज़रूरी है| समाज में लगाव भी चाहिए, उसका भी स्थान है, सबकी कद्र करना चाहिए, उसकी भी ज़रूरत है| यही जीवन जीने की कला है| सब लेकर चलिए सामाजिक कर्त्तव्य, निष्ठा, साधना, सत्संग, सेवा।
