*मुस्लिम समाज से कैसे दूर हो जहालत का अंधेरा ?*
यह एक सवाल हम सभी के मन में बहुत दिनों से घूम रहा था...ख़ासकर हाल की कुछ घटनाओं के बाद। उसी सवाल को लेकर डॉ राहत इंदौरी से बातचीत पर आधारित यह इंटरव्यू आपकी नज़र । यह लेख देश के अखबारों में पब्लिश होना शुरू हो गया है। यहाँ आभार वेबदुनिया हिंदी और चौथा संसार का। एक विशेष बात और..यह इंटरव्यू किसी के ख़िलाफ़ या किसी के पक्ष में नहीं है। ये पोस्ट खुद अपने समाज की बेहतरी के लिए है।अपने भीतर झांक कर देखने के लिए है। कृपया यहाँ अच्छे विचार रखें। माहौल ख़राब न करें।
राहत साहब से बात करने से पहले उनकी लिखी एक बहुत पुरानी ग़ज़ल के दो शे’र याद आ गये।
*वो पांच वक्त नज़र आता है नमाज़ों में
मगर सुना है शब को जुआ चलाता है*
*ये लोग पांव से नहीं ज़हन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है *
*मेरा पहला सवाल था…संकंट के समय भी जहालत.? यह जहालत कैसे दूर होगी ?*
डॉ.राहत इंदौरी कहने लगे, समाज से जहालत को दूर करने का काम फटाफट क्रिकेट की तरह नहीं है जो 20 ओवर में ख़त्म हो जायेगा। यह तो बरसों पुराने जरासिम हैं। मुआशरा आज जिस अंधेरे में पहुंचा है। उस जहालत के पीछे बहुत सी वजहे हैं। अगर अपने अंदर झांके तो हम समझ सकते हैं कि ऐसा क्यों हुआ ? यह गुमराह होने और अच्छी बातों को न समझने की सलाहियत का भी मामला है। बरसों तक इस मामले में ध्यान ना दिये जाने की वजह से ऐसा हुआ है। बेशक इसमें हमारे रहनुमाओं की भी बड़ी भूल है या उनकी तंग-नज़र खुदगर्ज़ी है। मगर जैसे मैंने कहा, यह फटाफट क्रिकेट नहीं है कि मैच ख़त्म होते ही काम हो जायेगा। यह लगातार किया जाने वाला काम है। यह काम तो समाज और इसके ज़िम्मेदार लोगों को हर दिन करना पड़ेगा। ताकि हम जिस तरह के समाज की कल्पना करते हैं, वो सही मायनों में साकार हो सके।
*मगर हम एक अच्छे समाज के रूप में अपना आचरण कब बदलेंगे ?*
देखिये अचानक आई आपदाओं या महामारियों के वक्त भी इंसानी सुलूक बदल जाता है। आप पहले की महामारियों यानी प्लेग (ब्लैक डेथ ) या इन्फ्लुएंजा के दौर को भी देख लीजिये..तब शासन फिरंगियों का था..मगर उस वक्त भी अवाम और निज़ाम में एक किस्म की रस्साकशी और तनातनी थी। उस वक्त भी आज के डॉक्टर्स,नर्सेस,मेडिकल स्टाफ़,पुलिस और समाज सेवियों की तरह समाज के सच्चे हीरो लोगों की मदद में जुटे थे। जबकि माहौल खऱाब करने वाले ग़ैर ज़िम्मेदार लोग अफवाहें फैलाने या समाज को दिग्भ्रमित करने का काम कर रहे थे। अपने दिमाग़ का संतुलन खो बैठे थे। बेशक हम अब पढ़े-लिखे समाज हैं। मुस्लिमों में भी शिक्षा का जबरदस्त प्रचार हुआ है। प्रतिशत बढ़ा है। हम अब पहले जैसी स्थिति में नहीं है। फिर भी हमें ज़्यादा सजग और सावधान रहने की ज़रूरत है। सीखते रहने की ज़रूरत है। हमें एक राष्ट्र के रूप में भी बहुत सी बातों को जानने,समझने और सीखने की ज़रूरत है। वैसा ही आचरण की ज़रूरत है। हालात के हिसाब से अपने किरदार का सही रूप पेश करना हम सभी की ज़िम्मेदारी है। जानकारी ना होने पर भी कुछ लोग असंयिमत व्यवहार करने लगते हैं। उस समय उन्हें सही मार्गदर्शन देने की ज़रूरत है। माहौल को भड़काना ठीक नहीं है। ऐसे मामलों में समझदार लोगों और पढ़े-लिखे लोगों की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।
*क्या हमारे ग़ैर ज़िम्मेदार होने में कोई मज़हबी रूकावट है ? क्या तालीम में कुछ कमी रह गई है?*
बच्चा पैदा होते ही हम उसके कान में आज़ान दे देते हैं। मज़हबी लिहाज से यह अच्छी बात है। परंतु इसके साथ-साथ हमारा मज़हब इल्म और तालीम ( ज्ञान और शिक्षा ) की बात भी कहता है। तालीम हमारे मज़हब में हर औरत और मर्द पर फर्ज़ है। मतलब जैसे कि नमाज़ फर्ज़ है। उसी तरह से इल्म फर्ज़ है। सभी जानते हैं कि पवित्र कुरआन में कहा गया है कि इल्म हासिल करने के लिये अगर आपको चीन जाना पड़े तो ज़रूर जाइये। बच्चों को हम रोज़ा,नमाज़,हज,ज़कात जैसे अरकान के बारे में तो बता देते हैं। पर यह क्यों भूल जाते हैं कि भाई इल्म भी उसमें एक बुनियादी चीज़ है। मगर दुनियावी इल्म को हम भूल जाते हैं। दीनी इल्म पर ही सारा ध्यान देने लगते हैं। अगर ऐसा न हो तब दुनियावी जानकारी से महरूम एक जाहिल नस्ल पैदा हो जाती है। आप परेशान हो जाते हैं उन्हें अपने बीच देखकर जो कोरोना संकट के दौरान डॉक्टरों पर पत्थर फेंकने लगते हैं। बदसुलूकी करते हैं।
शुक्र इस बात का है कि हमारी सुसाइटी में जाहिल या गुमराह हुए लोगों की संख्या ऐसी नहीं है कि जिन्हें कंट्रोल ना किया जा सके। समाज को आगे बढ़ाने और अच्छा काम करने वाले लोग ऐसे लोगों से बहुत ज़्यादा हैं। मगर जिनमें कहीं कोई कमी या ख़राबी है। उनमें सुधार लाना और इसकी कोशिशें ज़रूरी है। ऐसे लोगों के लिये क़ानून अपनी जगह तो है ही। राहत साहब समाज को इल्म की हैसीयत बताते हुए कहते हैं...
*तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो,तैर के दरिया पार करो*
वे कहते हैं, जब हम खुद ही जागरूक हो जायेंगे, रोशन हो जायेंगे तो फिर हमारे किरदार की खुशबू भी अलग होगी। उसमें गलतियों की गुंजाइश नहीं होगी क्योंकि जब किसी भी सुसाइटी में एक बार रोशनी पैदा हो जाती है तब अंधेरों का ठहरना मुश्किल हो जाता है। मेरी तो एक ही सलाह है खूब पढ़िये,इल्म हासिल की कीजिये। अपने समाज, अपने वतन का नाम रोशन कीजिये। अपनी सलाहियतों की एक मिसाल पेश कीजिये। कई क्षेत्रों में भारत के मुस्लिमों यह मिसाल कायम की है।
*आपने कहा,अक्सर महामारियों या अचानक आई आपदाओं के वक्त इंसान का दिमाग़ी संतुलन खो जाता है। ऐसे में क्या करना चाहिये ?*
एक ग़ज़ल में मैंने कहा है...
*आंख में पानी रखो,होठों पर चिंगारी रखो
ज़िदां रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो*
हमें जैसे भी हालात हों उसके हिसाब से खुद को ढालना आना चाहिये। हालात चाहें दुख के हों या सुख के। उसका इस्तकबाल करना चाहिये। आज हम कितने खुशनसीब हैं, हमें कोरोना संकट के वक्त हिदायतें दी जा रही हैं। शासन-प्रशासन की तरफ से बेहतरीन कदम उठाये जा रहे हैं। तमाम एक्सपर्ट्स और डॉक्टर हमें सलाह दे रहे हैं। तब भी हम चीज़ों को हलके में ले रहे हैं। हम आज भी कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह घर से बाहर निकलकर अपने पसंद की कोई चीज़ ले आये। या बहार का एक चक्कर लगा लें। यानी ऐसे वक्त में जब हर इंसान के संक्रमित होने का उसके परिवार और समाज पर असर पड़ सकता है। जैसा कि हम जानते हैं एक आदमी अकेला 400 से अधिक लोगों को कोविड 19 का इन्फेक्शन दे सकता है। हाल ही में खरगोन और आंध्र प्रदेश से भी ऐसी ख़बरें सामने आईं हैं। तब भी हम महामारी के प्रति सजग नहीं है या लॉक डाउन का पालन नहीं करते हैं तो यह बहुत शर्म की बात है। भाई इतना तो समझिये, अपनी वजह से किसी भी इंसान की ज़िदंगी ख़तरे में क्यों डालते हैं। सबसे पहले आप अपने घर के लोगों या दोस्तों को संक्रमित करते हैं। इस महामारी से मुकाबला किसी एक के बस की बात नहीं है। इसके खिलाफ सभी समुदायों,समाजों, सियासी दलों को मिलकर लडाई लड़ना होगा। समझ बूझ से काम लेना होगा। तभी हम इस महामारी को शिकस्त दे पाएंगे।
