प्रश्न : गुरुदेव, इस पूर्ण विश्वास के साथ कैसे जीवन जियें, कि समर्पण करने के बाद गुरु या भगवान मेरी देखभाल करने के लिए हमेशा हैं?
ऐसा करने का कोई तरीका नहीं है! आपको इसकी जिम्मेदारी खुद ही उठानी पड़ेगी। ‘जो होगा, देखा जाएगा’ – बस ये कहिये, और देखिये कि क्या होता है।
यदि आप विश्वास को लाने का ‘प्रयास’ कर रहे हैं, तो कुछ नहीं होगा।‘मैं अपनी श्रद्धा बनाये रखना चाहता हूँ’ – कौन सी श्रद्धा आप बनाये रखना चाहते हैं?
फेंक दीजिए श्रद्धा को! आप अपनी श्रद्धा को बरकरार रखने का ‘प्रयास’ कर रहे हैं – ये कितना बड़ा बोझ है! उल्टा कहिये, ‘मुझे कोई परवाह नहीं है!’
यदि श्रद्धा है, तो है। यदि श्रद्धा नहीं है, तो नहीं है, आप कर भी क्या सकते हैं? ये सीधी सी बात है। श्रद्धा भी एक उपहार है। आप अपने दिल और दिमाग में श्रद्धा थोपने का प्रयास नहीं कर सकते।
कभी कभी, जब आपका दिमाग अपनी बक-बक और नकारात्मकता से श्रद्धा को नकार भी देता है, तब भी आपके अंदर कुछ होता है, जो आपको उस दिशा में ढकेलता है। जब ऐसा होता है, तो उसे पहचानिये। और ऐसा होता है।
कोई कहता है, ‘मैं किसी में विश्वास नहीं करता’, लेकिन फिर भी वह बैठकर ध्यान करता है। और यदि आप उससे पूछेंगे, ‘कि आप ध्यान क्यों कर रहे हैं?’, तो वे कहेंगे, ‘मेरे अंदर कुछ है, जो मुझे ध्यान करने के लिए कहता है’।
एक व्यक्ति कहता है, ‘मैं गुरु में विश्वास नहीं रखता!’, लेकिन फिर भी जब गुरुदेव आते हैं, वह कहता है, ‘क्योंकि अब मेरे पास कुछ और करने के लिए नहीं है, तो चलो मैं वहीँ चलता हूँ’, और वह वहां पहुँच जाता है। कुछ है, जो उस व्यक्ति को उस ओर खींचता है, उसे एयरपोर्ट की तरफ ले जाता है, या सत्संग में आने पर विवश कर देता है। वह क्या है?
आपने ये निर्णय ले लिया, कि आपको श्रद्धा नहीं है, और आपने अपनी श्रद्धा को मिटाने के लिए बहुत जतन कर लिए, या मना करते गए कि आपमें कोई श्रद्धा है, लेकिन फिर भी कुछ ऐसा हुआ, जिसने आपको बांधे रखा। वहीं आपको सजग हो जाना चाहिये, ‘कि हाँ, श्रद्धा तो है!’
इसलिए, श्रद्धा थोपी नहीं जा सकती, वह तो है ही। एक बार जब वह आ जाती है, तो हमेशा रहती है। अगर वह चली जाती है, तो वह आपको दुखी कर देती है। जब आप दुखी हों, तो इतना याद रखिये, ‘श्रद्धा चली गयी है, इसीलिये मैं दुःख में हूँ’। और आप दुखी नहीं रहना चाहते। तो इसीलिये, जिस क्षण आप ये ठान लेते हैं, कि ‘मुझे दुखी नहीं रहना’, तब श्रद्धा वापिस आ जाती है।
श्रद्धा तो हमेशा से ही थी, बस वह दोबारा प्रकट हो जाती है।
यदि आप श्रद्धा को रखने का ‘भरपूर प्रयास’ करते हैं, तब वह एक बहुत ही मुश्किल काम है। कभी कभी लोगों को ऐसा लगता है कि वे सिर्फ गुरु या भगवान की वजह से अपनी श्रद्धा बरकरार रखे हुए हैं। भगवान के लिए, इतना याद रखिये, कि वह ‘आप’ हैं, जो श्रद्धा रखते हैं।| याद रखिये, कि यदि आप श्रद्धा नहीं रखते, तो उससे भगवान को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वह कहता है, ‘ठीक है, विश्वास मत रखो, तो क्या हुआ?’ मैं तो यहीं हूँ! अगर तुम्हें लगता है कि मैं यहाँ नहीं हूँ, तो ठीक है, तुम्हें कुछ भी सोचने की आज़ादी है’।
बहुत से लोग कहते हैं, ‘ओह! मैं भगवान में इतना विश्वास करता हूँ’। तो क्या हो गया यदि आप इतना विश्वास करते हैं? जो होना है, वो तो होगा ही। हमारी श्रद्धा इतनी खोखली होती है। हमारी श्रद्धा केवल हमारी सुविधा के हिसाब से है, जिससे छोटी छोटी चीज़ें हो जाएँ। हमारी श्रद्धा, खास तौर से हमारी खुद की इच्छाएं पूरी करने के लिए होती हैं। यदि हमारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, तब हम कहते हैं, ‘ओह, मुझे श्रद्धा है’।यदि वे पूरी नहीं होती, तब हम कहते हैं, ‘मेरी श्रद्धा हिल गयी है, मुझे श्रद्धा नहीं है’। मैं आपसे कहता हूँ, जीवन इच्छाओं से कहीं ज्यादा है। और श्रद्धा जीवन से भी बढ़ कर है।
श्रद्धा रहती है, और वह तब प्रकट होती है जब आपके अंदर सत्व और सामंजस्य बना होता है। आप सिर्फ इतना कर सकते हैं कि सामंजस्य बनाये रखें, और उचित व्यायाम से, भोजन और ज्ञान से अपने मन को स्वच्छ रखें| ये सब उस दिशा में बढ़ने के लिए आपकी सहायता करेंगे।
