जब भी मैं किसी धर्म या जाति में व्याप्त मूर्खतापूर्ण बातों, मिथकों, गलत या भ्रामक तथ्यों की आलोचना करता हूं तो सबसे पहले अंधभक्तों की टोली अपनी दिमागी दिवालियापन का नमूना पेश करते और दोहरी मूर्खता का जबर्दस्त प्रदर्शन करते हुए सबसे पहले तो मेरी उम्र को लानत-मलामत भेजते हैं और फिर मेरे नाम को अप्रासंगिक मानते हुए यह भी कहना नहीं भूलते कि इसके मां-बाप ने न जाने क्यों ऐसा नाम रख दिया। उन अंधभक्तों को शायद यही लगता है कि जिस व्यक्ति का जैसा नाम होता है, वह वैसा ही व्यवहार करता है और उसमें भी नाम के अनुरूप ही गुण भी होते होंगे। अब इन मूर्खाधिराजों को कौन बताए कि अगर ऐसा होता तो राम नाम वाले सभी एक ही तरह के होते और सभी दशरथ जैसे राजा के बेटे ही होते। बहुत से राम नाम वालों को राम के नाम पर भीख मांगते भी देखा गया है। अंधों के नाम भी नयनसुख होते हैं, भिखारी नाम वाले भी धनी होते हैं, और धनीराम भी मजदूरी करते या गुलामी करते हैं।
भारत में तो अधिकतर लोगों का नामकरण भगवान या देवी-देवताओं और पौराणिक महान पात्रों या नायकों के नाम पर ही होते हैं, तब तो ऐसे सभी के व्यक्तित्व में उनके ही गुण समाहित होने चाहिए थे। पर, अधिकतर मामलों में होता इसके ठीक उल्टा है। अगर ऐसा नहीं होता तो गुरु राम-रहीम , आशाराम बापू, स्वामी निश्चलानंद, स्वामी नित्यानंद ऐसे अनेक बाबा, साधु, महात्मा, पुजारी और महंत बलात्कारियों की जमात में शामिल नहीं होते। व्यक्ति का चरित्र, गुण, योग्यता, आचरण और व्यवहार यदि यथा नाम तथा गुण के अनुसार होते, तब तो भारत दुनिया का सबसे सभ्य, शिष्ट, शालीन, विकसित, आधुनिक, प्रगतिशील और जनवादी देश होता। यहां श्रम और श्रमिकों की भी इज्जत होती और लोग बहुसंख्यक मेहनतकशों से भी प्रेम से गले मिलते। पर, यहां होता तो ठीक इसके उल्टा ही है। श्रम और श्रमिकों से प्यार नहीं, नफरत करने वालों की ही संख्या सबसे अधिक है। मेहनतकशों को गुलाम बनाने और मानने की भारत में एक लंबी और अटूट परंपरा रही है। इन मजदूरों को गुलाम बनाने के लिए ही भक्ति के महात्म्य का बखान किया गया है। जो इंसान से प्रेम नहीं करता, वह कभी भी भक्ति का मर्म नहीं समझ सकता।
रामनवमी और हनुमान जयंती पर जगह-जगह उन्मादी जुलूस निकालने, भड़काऊ नारे लगाने, दंगे करने और लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले भी क्या कभी भक्त हो सकते हैं? राम और हनुमान के व्यक्तित्व और कृतित्व पर उंगली उठाने पर हो-हल्ला मचाने वालों और फतवा जारी करने वालों ने क्या कभी भारत के करोड़ों गरीबों, भूखे, लाचार और बेसहारा मजदूरों के बारे में सोचा भी है? क्या उनकी बेहतर जिंदगी की कभी कामना भी की होगी? क्या भारत के बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम की बेहतर जिंदगी, सुविधाओं और अधिकारों के लिए कभी सरकार के खिलाफ आवाज भी उठाई होगी? यह उनकी भक्ति का कौन-सा मानक है कि पत्थरों की मूर्तियों और पौराणिक कथानक के पात्रों के लिए तो प्रेम, भक्ति, सहानुभूति और समर्पण की भावनाओं का ज्वार उठता है, पर अस्सी करोड़ बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम, किसानों, मजदूरों और बेरोजगार नवजवानों के दुख-दर्द के लिए आंखों से पसीना भी नहीं निकलता, उल्टे उनकी बदहाली और तंगहाली पर यही लोग ठहाके लगाते हैं। गरीब और मजदूर शब्द को ही घिनौना समझने वाले पत्थरों के दर्द तो समझ जाते हैं, पर जिंदा इंसान का दर्द इन्हे विचलित करने के बदले सुकून देता है कि चलो साले मजदूर कीड़े-मकोड़े की तरह मर तो रहे हैं। अंधभक्तों के रूप में परजीवितावादियों की फौज की दिमागी दिवालियापन और दोमुंहेपन का यह ज्वलंत उदाहरण है।
एक व्यक्ति अपनी संवैधानिक शक्तियों का संसद में बहुमत के आधार पर नाजायज उठाते हुए देश की सारी संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों, उद्योगों और लोक उपक्रमों, कल-कारखानों, कंपनियों और निगमों, आवागमन के साधनों से लेकर सरकारी परिसंपत्तियों को कौड़ियों के मोल बेच रहा है, लेकिन भक्तों की आंखें खुल ही नहीं रही हैं। करोड़ों भूखे-नंगे और बदहाली और जलालत की जिंदगी जीते भारतीयों की दर्द भरी आह और आवाज इनके कानों तक पहुंचती ही नहीं, और अगर पहुंचती हैं तो पत्थरों से टकराकर वापस आ जाती हैं। लेकिन, इनका जमीर, जज्बा और सहानुभूति के भाव जगते ही नहीं। ऐसे ही लोग राममंदिर, रामनवमी और हनुमान जयंती का जुलूस निकालते इस कदर बावले हो जाते हैं कि अपने जोश में किसी की जान लेना और किसी का घर जलाना भी उत्सव समझते हैं, पर करोड़ों मेहनतकशों की आवाज इनके कानों से टकराकर लौट आती है। अपने कुल-खानदान के तीन पीढ़ियों के भी नाम और जन्मतिथि न जानने वाले हजारों साल का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए राम की दो सौ पीढ़ियों के भी नाम जानते हैं। जब लोगों के पास भाषा और लिपि भी नहीं थी, तब का लिखा इनको सब पता है, पर आधुनिक युग की लिखित तथ्यों से इनका कोई परिचय नहीं है।
कुछ लोग मेरी उम्र का भी तकाजा करते हुए यहां तक कहते हैं कि बुढ़ापे में लोगों की बुद्धि अक्सर ही क्षीण हो जाती है। अपने को जवान समझने और जवानी का पर्याय समझने वाले तथाकथित युवाओं को जब गाय, गोबर, गौमूत्र, मनुस्मृति, वर्णव्यवस्था, प्राचीन भारत, राममंदिर निर्माण, हिंदू-मुसलमान भारत-पाकिस्तान, राम और हनुमान, दुर्गा पूजा पर पागलपन की हद तक तुफान मचाते देखता-सुनता हूं, तो मेरे मुंह से यह अनायास ही निकल जाता है कि इनकी जवानी से मेरा बुढ़ापा ही भला। जिनकी जवानी में ही घून लगा हो, उसे दूसरे के बुढ़ापे पर लानत भेजने का अधिकार नहीं है। शरीर भले ही कुछ थक गया है, पर दिमागी रूप से मैं इन तथाकथित जवानों और इनके बौद्धिक शुभचिंतकों से सौ गुना बेहतर हूं। ऐसे लोग जैसे ही किसी पोस्ट पर टिप्पणी के लिए मुंह खोलते हैं, इनकी घटिया सोच और विकृत मानसिकता स्पष्ट हो जाती है। सच में, पत्थरों को पुजते-पुजते ये खुद भी पत्थर हो गए हैं। काश, इनके मन में मंहगाई, भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, व्याभिचार, हरामखोरी, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी और परजीवितावाद के खिलाफ भी कभी विरोध के भाव आए होते।
राम अयोध्या सिंह..
