एक निश्चित मानसिकता है जो हमेशा गलतियाँ ही ढूंढती रहती है। सबसे सुंदर चिजो मे भी कुछ लोग कुछ न कुछ ग़लत ढूंढते ही है। इस प्रकार की मानसिकता को अल्पज्ञ कहा जाना चाहीए यह संसार के अतिउच्च ज्ञान को कभी न जान पाएगे।
अल्पज्ञ या इर्षालू हर जगह दोष ढूंढ लेते है या दुर्भावनापूर्ण इरादे रखते है।
मान लीजिए किसी वजह से आप दरवाज़ा बंद कर देते हैं, और उसी क्षण कोई अंदर आने ही वाला था, यदी वह सोचेगा कि मुझे देखकर जान बुझकर दरवाजा पटका गया है, उसके चेहरे पर तमाचा मारा गया! यह अल्पज्ञता है।
कभी कभी सबंधो मे भी ऐसें होता है कई साल साथ रहने के बाद भी हम कोई न कोई गलती ढूंढकर इसे तोडणे का फैसला कर लेते हैं। अब उस व्यक्ती मे हमे कुछ भी अच्छा नहीं दिखता यह अल्पज्ञता है, हम तुरंत उससे द्वेष करणे लगते है, इर्षा करते है। केवल उसकी कमियो पर हि दृष्टी टिकी रहती है।
आध्यत्मिक मार्ग मे भी कभी कभी यह अनुभव मे आता है। आध्यात्मिक पथ से हट जाते हैं तो महसूस होने लगता है की रास्ते पर सब गलत था। यह अल्पज्ञता स्वयं का ही नुकसान कर देती है।
जीवन के विभिन्न स्तरों पर ज्ञान भिन्न होता है। एक विशेष बिंदू पर हमारे स्वभाव मे एक उदारता आ जाती है । हम ज्ञान को महसुस करने लगते है। दोष खोजने वाली आँखों से मुक्त होने लगते है।
दूर से, किसी की गलती नज़र आना आसान है; बहुत करीब से तो कोई भी दोष आपसे नहीं बचता। कभी कभी गड्ढे दूर से दिखाई नहीं देते; किंतु बहुत करीब से दिख जाते है।
यदि आप केवल ज्ञान मे रुचि रखते हैं तो बहोत करिब होने के बाद भी आप को उनमे दोष नही दिखाइ देंगे। अगर हम मे यह दृष्टिकोन विकसित न हो तो, ज्ञान हममें खिल नहीं सकता। यदि दर्पण पर धूल है तो हम उसे साफ कर सकते हैं। लेकिन अगर हमारी आंखों में ही दोष हो तो, दर्पण को कितना भी साफ करने से कोई मदद नहीं मिलेगी। हमे हमारे दृष्टीदोष को दूर करना होगा। तब हम देखेंगे कि दर्पण तो पहले से ही साफ था।
दोष खोजने वाली आँखें, आपको यह विचार देती हैं कि पूरी दुनिया ठीक नहीं है, सारा संसार अच्छा नहीं है। दोषरहित दृष्टी समझती है की , 'यह दुनिया के बारे में मेरी अपनी दृष्टि है' और जब एक बार हमको यह पता चलता है तो, रास्ता आसान लगता है सब अपने लगते है कोई पराया नही लगता।
इसिलीए
नजर बदल दो नजारे बदल जाएगे,
सोच बदल दो, सितारे बदल जाएगे।
कष्तीया बदलने से कुछ नही होता,
दिशाए बदल दो किनारे बदल जाएगे।

